दो कविताएँ 





सुभाष नीरव










(1) परिन्दे



परिन्दे

मनुष्य नहीं होते।



धरती और आकाश दोनों से

रिश्ता रखते हैं परिन्दे।



उनकी उड़ान में है अनन्त व्योम

धरती का कोई टुकड़ा

वर्जित नहीं होता परिन्दों के लिए।



घर-आँगन, गाँव, बस्ती, शहर

किसी में भेद नहीं करते परिन्दे।



जाति, धर्म, नस्ल, सम्प्रदाय से

बहुत ऊपर होते हैं परिन्दे।



मंदिर में, मस्जिद में, चर्च और गुरुद्वारे में

कोई फ़र्क नहीं करते

जब चाहे बैठ जाते हैं उड़कर

उनकी ऊँची बुर्जियों पर बेखौफ!



कर्फ्यूग्रस्त शहर की

खौफजदा वीरान-सुनसान सड़कों, गलियों में

विचरने से भी नहीं घबराते परिन्दे।



प्रांत, देश की हदों-सरहदों से भी परे होते हैं

आकाश में उड़ते परिन्दे।

इन्हें पार करते हुए

नहीं चाहिए होती इन्हें कोई अनुमति

नहीं चाहिए होता कोई पासपोर्ट-वीज़ा।



शुक्र है-

परिन्दों ने नहीं सीखा रहना

मनुष्य की तरह धरती पर।

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(2) नाखून





इन दिनों

नाखून मेरी कविता का

हिस्सा होना चाहते हैं



इस पर

मेरे कवि-मित्र हँसते हैं

और कहते हैं-

कविता की संवेदन-भूमि पर

नाखूनों का क्या काम ?

नाखूनों पर बात हो सकती है

कविता नहीं



जैसे

यह जानते हुए भी कि

नाखून रोग का कारण होते हैं

फिर भी

फैशनपरस्त और पढ़ी-लिखी स्त्रियों को

बहुत प्रिय होते हैं नाखून



या फिर

खुजलाना बेमजा होता है

बगैर नाखूनों के



अधिक कहें तो

एक निहत्थे आदमी का

हथियार होते हैं नाखून

जो मौका मिलने पर

नोंच लेते हैं

दुश्मन का चेहरा  !



पर दोस्तो-

मेरे सामने एक ओर नाखून हैं

और दूसरी तरफ

धागे की गुंजलक-सा उलझा मेरा देश

और हम सब जानते हैं

गांठों और गुंजलकों को खोलने में

कितने कारगर होते हैं नाखून।








पंजाबी


दो कविताएँ



देविंदर कौर

(अनुवाद : सुभाष नीरव)





(1) जश्न



न ख़त की प्रतीक्षा

न किसी आमद का इंतज़ार

न मिलन-बेला की सतरंगी पींग के झूले

न बिछुड़ने के समय की कौल-करारों की मिठास...



वह होता है...

रौनक ही रौनक होती है

वह नहीं होता तो

सुनसान रौनक होती है

रौनक मेरी सांसों में धड़कती है



मेरी मिट्टी में से एक सुगंध

निरंतर उठती रहती है

मैं उस सुगंध में मुग्ध

सारे कार्य-कलाप पूरे कर

घर लौटती हूँ



लक्ष्मी का बस्ता खूंटी पर टांगती हूँ

मेनका की आह से गीत लिखती हूँ

पार्वती के चरणों में अगरबत्ती जलाती हूँ

सरस्वती के शब्दों के संग टेर लगाती हूँ



इस तरह

अपने होने का जश्न मनाती हूँ।







(2)उसके पैरों में



उसके पैरों में

मछली वाली झांझरें थीं

हर वक़्त

धरती पर उड़ने का चाव…

सुबह-शाम फुदकती रहती

आकाश की ओर बाहें खोलती

गोल-गोल घूमती, बलखाती

हरे-भरे लहलहाते

खेतों में दौड़ती

चुनरी के पल्लू को हवा में उड़ाती



पर पैरों में तो

मछलियों वाली झांझरें थीं

और मछलियाँ कब उड़ा करती हैं?



अचानक एक दिन

उसने पैरों की झांझरें

उतार कर फेंक दीं

और नज़र का आसमान

उसको दस्तक देता रहा।